जो कहना चाहते उनसे

जो कहना चाहते उनसे,
वो भाव जुबां पर ला नहीं सकते,
मचलते है जो उनके ख़्वाब,
हक़ीक़त उनकी, उन्हें हम पा नहीं सकते,
बड़ा खूब है उनसे मेरा नए दौर का इश्क़,
वक़्त से देर है दोनों, पर दोष किसी को दे नहीं सकते,
मुहब्बत निर्मोही जो रिश्तों में,
उन्हें बराबर लिख नहीं सकते…

लुभाती है उनकी बातें,
उन्हें सुनने को जीते है,
पर वो जो कहना है उन्हें हमसे,
वो हमसे कह नहीं सकते,
उनकी आँखों में हर पल है,
पर दिल में हो नही सकते,
वो जो कहना चाहते उनसे,
वो भाव जुबां पर ला नहीं सकते..

नदी के किनारों सा है ये रिश्ता,
साथ तो है हर-पल में,
पर एक दूसरे से मिल नहीं सकते,
कृष्ण और राधा सी किस्मत,
जुदा जो हो गए कल में,
कम्बख़्त रो भी नहीं सकते,
क्या लिखूं उनपे मेरी कविता,
वो सार है मेरी मगर शीर्षक हो नहीं सकते..

जो कहना चाहते उनसे,
वो भाव जुबां पर ला नहीं सकते,
मचलते है जो उनके ख़्वाब,
हक़ीक़त उनकी, उन्हें हम पा नहीं सकते,
बड़ा खूब है उनसे मेरा नए दौर का इश्क़,
वक़्त से देर है दोनों, पर दोष किसी को दे नहीं सकते,
मुहब्बत निर्मोही जो रिश्तों में,
उन्हें बराबर लिख नहीं सकते…

©सन्नी कुमार ‘अद्विक’

तेरे क़िस्सों का किरदार न हो जाऊं तो कहना

मुँह आज मुझसे मोड़ते हो, क्यों ध्यान नहीं देते हो,
क्या है कमी आज मुझमें, जो मुझसे नज़रें चुराते फिरते हो..
यह लत लगी है कैसी, क्या औरों में ढूंढते हो,
है धन-मान-विचार जो मानक तुम कहो कितना ठहरते हो?

हूँ मैं आज तक अधूरा पर कल से ज्यादा हूँ भरा,
कर दो ख़ारिज आज भले, कल तुम्हें मुझको है मनाना,

और फिर

वक़्त बदलते ही ये नजरें न झुक जाए तो कहना,
मेरे विचार सुनने को एक रोज़ न तरस जाओ तो कहना,
थोड़े समतल में हूँ इन दिनों सो जायज़ भी है ये तुम्हारा रूखापन,
कल छोड़ तुम्हे इसी भीड़ में, मैं छू न जाऊं शिखर तो कहना,
वक़्त बदलते ही तेरे क़िस्सों का किरदार न हो जाऊं तो कहना।
©सन्नी कुमार अद्विक

कभी मुग्ध हो मेरी कविता पर..

कभी मुग्ध हो मेरी कविता पर,
तुम अपने कहानी में जो मोड़ बनाओ,
कभी मान मेरी बातों को,
तुम अपने जीवन में जो नए अर्थ सजाओ,
कभी खोकर मेरी आँखों में,
तुम अपने ख़्वाबों में जो मुझे बसाओ,
हो सरस-सुफल मेरा यह जीवन,
तुम अपने में जो मुझे बसाओ..
©सन्नी कुमार ‘अद्विक’

मौसम है स्नेह के तेल चढ़ा लेना

गर सुख गया हो दीये सा मन,
मौसम है स्नेह के तेल चढ़ा लेना,
हो मन में कहीं गर लोभ-क्रोध का अंधेरा,
मौका है प्रेम के दिये जला लेना।

घर को, मन को, गर कर चुके हो साफ,
पड़ोस-पड़ोसियों से कचड़ा-क्लेश भी हटा लेना,
कब तक रखोगे रामायण में राम,
आज दिन है खुद में भगवान बसा लेना।

गर सुख गया हो दिये सा मन,
मौसम है स्नेह के तेल चढ़ा लेना..

गर पर्याप्त हो ढ़कने को तन,
किसी और की लाज बचा लेना,
है आज रात जो चाँद को छुट्टी,
उसके भरोसे जो है, उनको दीये दिला देना..

रहेगा न आज कोई कोना अंधेरा,
आप बस अपना दायरा बढ़ा लेना,
राम मिलेंगे आपसे झूम गले,
आप भरत के भाव बसा लेना..

गर सुख गया हो दिये सा मन,
मौसम है स्नेह के तेल चढ़ा लेना..
©सन्नी कुमार ‘अद्विक’

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वो सावन अब तक नहीं आया

आज अपनी ही तस्वीर देखी तो कमबख्त ये ख़्याल आया,
कि लिखते रहे औरों को इतना डूबकर कि खुद का ख्याल भी नहीं आया,
औरों को लुभाने की चाह में मैं खुद को ही भूला आया,
आज कहते है सभी अपने कि थोड़ा मैं भी मुस्कुरा लूं,
पर कैसे कि वजह लेकर वो सावन अब तक नहीं आया..
©सन्नी कुमार ‘अद्विक’

मुहब्बत को ख़ुदा मान आया हूँ

अब जब ईमान उसके इश्क़ पे ले आया हूँ,
उसी के ख्यालों से, खूबसूरत दुनिया कर पाया हूँ,
हर नेकी, हर ज़कात की ख़्वाहिश,
अब जो उससे मिलकर ही आई है,
तो क्या कल दिखेगी मुझको भी मेरी चाँद,
क्या कल मिलेगी मुझको भी मेरी ईदी,
कि महीनों मैं भी उसकी तड़प में न खा पाया हूँ..

क्या मिलेंगे मुझसे भी सब गले, मान ईमान वाले,
कि मैं काफ़िर जो अब, मुहब्बत को ख़ुदा मान आया हूँ…
-सन्नी कुमार ‘अद्विक’

मजदूर का जीवन

फूस के मकान में मेरा जन्म हुआ,
और फूस में ही बीता बचपन, ब्याह हुआ,
धन्य हो यह सरकार जो हाल में परधान मंत्री आवास मिला,
कहने को तो घर ही है, पर भ्रस्टाचार से बचा बस दीवार मिला।

हिस्से में जमीन, जो कुछ गज भर थी,
सो अपनों में तकरार हुआ,
थी टीस बड़ी पर न्याय सुलभ कहाँ,
है जेब भी खाली आभास हुआ,
फिर किस मुंह से जाते कोट-कचहरी,
सो लाठी-गारी से सब बात हुआ,
कुछ लोग थके कुछ हम भी थके,
फिर अपनी पेट भरने में सब भूल गया।

हर रोज सुबह एक नई मुसीबत,
पर मैं कभी हिम्मत न हारा,
हारता भी कैसे तब भूख ही मेरी प्रेरक थी,
मैं रोज रोटी जीतकर लाता था,
कभी खेतों से, कभी कारखानों से,
कभी दफ्तर से, कभी दुकानों से,
आसान नहीं था हर रोज काम पाना,
पर फिर मैं भर पेट भोजन पे भी तो खट आता था,
ज्यादा ख्वाब नहीं थे मेरे तभी चैन की नींद मैं पाता था,
मैं था कोई कवि नहीं, न इश्क़ मुझे भरमाता था,
था शायद यही कारण कि मुझे चाँद भी नहीं लुभाता था।

खैर बचपन बीता बाप भरोसे,
जवानी पसीनों के बल पर मैंने जीया,
पर आज बुढापा मार रही है,
हूँ बोझ ऐसा बता रही है,
बेटे बहू का कैसे दोष मैं दूं,
वो दूर भले पर कुछ रोटी तो भेज रहे है,
ये घर गांव आज भी उजड़ा है,
और वो मेरी तरह औरों के आशियां सजा रहे है।

आज दोपहर मुझको चिढा रही है,
हूँ बेकार बतला रही है,
कामगारों की किस्मत का,
जिंदगी रोज मखौल उड़ा रही है,
देश की नीतियों से गायब है वृद्ध,
और सरकार विकास का शोर मचा रही है।

दोष कैसे दूँ मैं औरों को,
कि जवानी में मैं क्यों मजदूर हुआ,
तब खिचड़ी नहीं थे स्कूलों में,
सो बचपन से ही कामगार हुआ,
काश तब पढ़ लेता दो-चार किताबें,
और पा लेता कोई नौकरी आम,
फिर होता पेंशन का अधिकारी,
नहीं मिलती बुढापे अकेलेपन और भूख की मार,
काश बना लेता एक आशियाँ अपना भी,
तो ये सूरज और चांद न चिढाते आज,
जो कुछ मैं आज झेल रहा हूँ,
आगे यह अब देश न झेले,
ऐसा कोई करो विधान,
हो हर वृद्ध सशक्त, मिले मजदूर को सम्मान।
©सन्नी कुमार

शुक्रिया सतरह तेरा

शुक्रिया सतरह तेरा,
हर रंग के लिए,
फरवरी का प्यार,
मई की मार के लिए,
सीखाया तुमने खुद को बेचना,
जून की रोटी के लिए,
धो चुका जो कड़वी यादें,
उन आंसुओं के लिए,
शुक्रिया सतरह तेरा,
हर रंग के लिए….

है खिले कई फूल जिसमें,
उस बाग के लिए,
हो गए जो अजनबी अपने,
उन सब सपनों के लिए,
दे रहे जो साथ मेरा,
उन यारों के लिए,
शुक्रिया सतरह तेरा,
हर रंग के लिए…

थी तलब जिस भाव की,
उस एहसास के लिए,
पहुंचाया जिसने तन-मन को ठंडक,
उन सब सांसो के लिए,
शुक्रिया सतरह तेरा,
हर प्यार के लिए…

हो चुका मैं पार जिनसे,
उन सब बाधाओं के लिए,
गया सराहा जब भी मैं,
हर उस लम्हें के लिए,
हूँ खिला जिस प्यार से,
उस परिवार के लिए,
शुक्रिया सतरह तेरा,
हर उपहार के लिए….
-सन्नी कुमार

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होना तुम्हारा

Sunny&Preeti1बहुत खास है मेरे लिए,
होना तुम्हारा..
खिलते है जिन ख्वाबों से,
उनमें है आना तुम्हारा.
हूँ हर्षित जिस हकीकत से,
उनमें है जीना तुम्हारा..

लोग पढ़ते है जिसको जान के कविता,
उनमें है बस जिक्र तुम्हारा.
जिंदगी और इसकी कहानी,
है दोनों ही अधूरी,
गर न मिलें इनको साथ तुम्हारा…
-सन्नी कुमार

Bahut khaas hai mere liye,
hona tumhara..
khilte hai jin khwabon se,
unmein hai aana tumhara..
hoon harshit jis haqeeqat se,
unmein hai jeena tumhara….

Log padhte hai jisko jaan ke kavita,
unmein hai bus jikra tumhara,
jindagi aur iski kahaani,
hai dono hi adhoori,
gar na mile inko saath tumhara.
©-Sunny Kumar

[Image credit:- Google Images]
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