लाश की राजनीती या राजनीती के कारण लाश?

वैसे तो दुनिया में हर रोज हजारों सुसाइड हो रहे, कोई खुद को बम से उड़ा रहा, कोई फंदे से झूल रहा..कुछ को अवसाद ले डूबती है कुछ को हूरों की लालसा पर रोहित की आत्महत्या को जो सुर्खियां मिल रही, खुद को पिछड़ा और पिछड़ों के पैरवीकार बताने वाले उसके लिए प्रार्थना करने के बदले नौटँकीया कर रहे, अख़बार उसे दलित लिख रहा, कुछ लोग कंवर्टेड ईसाई बता रहे तो कुछ उसको याकूब के हमदर्द.. बात जो भी हो पर एक शब्द में कहे तो वह बस एक डरपोक था, हो सकता है उसे किसी बात का पछतावा रहा हो या फिर अपने किये पर शर्मिंदा रहा हो या ये भी की उसके ही साथियों ने उसको उकसा अपने कदम पीछे खिंच लिए हो और वह बेचारा तन्हाइयों का हवाला देकर खुद की हत्या कर लेता है.. पर जो भी हुआ नहीं होना चाहिए था..
एक विश्वविद्यालय के मेधावी छात्र, जिसको सरकार से 25000 मासिक की छात्रवृति मिले वही छात्र याकूब का हमदर्द बन जाये, ऐसा नहीं होना चाहिए था.. मरने वाला लिख के मरा है की वो अकेलेपन की पीड़ा से मरा है, ये शर्मनाक है उसके साथियों के लिए पर शायद वो साले बेशर्म है जो जीते जी साथ न दे पाये पर मरने बाद राजनीती कर रहे। मुझे रोहित से कोई भी सहानुभूति नहीं है पर उसके घरवालों से है, अपने दोस्तों से है जो अक्सर अवसाद में घिरे होते है… जिंदगी जीने के लिए है इसे यूँही किसी के राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध के लिए बेकार मत करो.. छात्र हो तो पढ़ो, भारत के लिए संघर्ष करो, और राजनैतिक मोहरा मत बनो वरना आज भले तुम क्रूस पे लटक जाओ फिर भी यीशु नहीं बनोगे न बम से उड़ाने बाद ही जन्नत मिलनी है।

जाते-जाते

न सिख, न जैन,
न ब्राह्मण, न दलित,
न ईसाई, न कसाई,
न भेष, न भाषायी,

भारत में है ‘सिर्फ भारतीय’
की कमी हो आयी..

Bhoj (भोज)

kharaunaखरौना की कई विशेषता है, कई बातें है जो हमें राज्य के अन्य गाँवों से बेहतर बनाती है पर मुझे जो हमेशा से भाता रहा है वह है गाँव में होने वाला भोज. भोज को लेकर गाँव में खूब उत्साह होता है, आज भी लोग भोज से ही किसी समारोह की सफलता को आंकते है और हमारे गाँव का भोज विशेषकर दही चुरा तो मशहूर ही है.. खरौना के लोगों का  दही-चुरा से प्रेम भी जगजाहिर है..तो आइये आज उसी भोज की कुछ अच्छी बातें यहाँ आप सब से बांटते है.
खरौना, २२ टोला का गाँव,  जहाँ समय के  साथ भोज के तौर तरीके भी खूब बदले है पर इसका क्रेज और दही प्रेम अब भी वही है, हाँ पहले की तरह एक एक हरीया(मिटटी का बर्तन जिसमे १० से १२ लिटर दूध का दही जमा सकते) दही खाने वाले धुरंधर अब नही है और न ही खुद से भोजन तैयार करने वाला समाज बचा है.. आज भोज में भोजन की अधिकांश जिम्मेवारी हलवाई पर होती है, पहले की तरह लोग खुद से भोज नही बनाते. शायद प्रेम, काबिलियत और समय की कमी हो, पर हां लोगों को परोस कर खिलाने का प्यार अब भी गाँव में शेष है, इसके लिए हमें आज भी कैटरिंग और  भाड़े के लोगों पर निर्भर नहीं होना होता  और इस लिहाज से  आप  कह सकते है की समाज अभी पूरी तरह से हाशिये पे नही गया..
भोज को लोग यहाँ उत्सव की तरह मनाते है और जिनके यहाँ भोज होने वाला होता है उनके यहाँ बीडी, सिगरेट सुपारी तो सप्ताह भर पहले से ही बटने लगता है, लोगों की  भीड़ पहले से  ही जुटने  लगती  है. चिटठा बनाने की प्रक्रिया, या फिर दिन गुनाने के दिन के भीड़ से ही भोज की चर्चा
शुरू हो जाती है. ये दिनगुनाने का रिवाज और उस दिन चाय-नास्ता आपको और कहीं नही दिखेगा, ये खरौना की स्पेशलिटी है सार्वजिनक रूप से चिटठा(भोज में होने वालाअनुमानित खर्च) बनाने का रिवाज भी आपने शायद ही कहीं देखा हो, इन चिट्ठों को बनाने  के लिए पूरा समाज आमंत्रित होता है, और सबके रजामंदी से  ही भोज की रूप रेखा तैयार  होती है.
चलिए, चिटठा बन गया, अब अंगिया(निमन्त्रण) के प्रकार पे भी विचार करिये…अंगिया मुख्यतः तीन तरह के है, पहला घरजन्ना जिसमे घर से किसी एक व्यक्ति के लिए निमन्त्रण होता है, दूसरा समदरका जिसमे घर के सभी पुरुष और बच्चे निमंत्रित होते है और तीसरा चुलिहालेबार जिसमे घर के सभी सदस्य, महिलाएं भी आमंत्रित होती है.. इन तीनों के अलावा गाँव में चौरासी भी चलन में है जिसमे व्यक्तिगत रूप से किसी व्यक्ति या  परिवार को आमन्त्रण नही मिलता बल्कि  पुरे गाँव को एक साथ  ही अंगिया दिया जाता है. चौरासी भोज में में आपका भोज वाले से भले रिश्ता हो न हो, आप आमंत्रित हो जाते है.. निमंत्रण के बाद भोज वाले दिन अंगिया बोले तो बुलावा भेजने का भी अलग से रिवाज है. जब भोज तैयार होता है तब भोजी(जो भोज दे) के यहाँ से ‘विजय भेलौ हो’ जैसे शोर कराए जाते है ताकि लोग समझ जाए.. ये ग्रीन सिग्नल है;)
अब भोज परोसने के वक्त होता है..आज भी कुछ भोजों में केले के पत्ते पर भोजन परोसा जाता रहा है, पर हाल के दिनों में हम कागज और प्लास्टिक से बने पत्तलों पे निर्भर होने लगे है, ये मेरे विचार में शायद अच्छा नही है, पर बावजूद इसके हम इन्ही पत्तलों पर मजबूर हो रहे, खैर मैं इस पोस्ट से आपको प्लास्टिक, प्रदुषण, और पर्यावरण पे लेक्चर नहीं दूंगा, आप सब खुदे समझदार है..पर मैं यह भी कहने से न चुकूँगा की केले के पत्ते जब पहले भोज वाले के यहाँ जमा होता था, तो हम पछे उससे बन्दुक बना के खूब खेलते थे और फिर अपने लिए अच्छे पत्ते भी अलग से जुगाड़ कर रखते थे..वैसे केले के पत्ते प्लास्टिक पत्तलों से बेहतर विकल्प है, और उसका खेतों को नु्कसान भी नही… अरे यार फिर, लेकचर..छोरिये. अच्छा तो पत्तों की बात हो गयी, अब ज़रा जमीन पर बैठ के जो बेहतरीन तरीके से खाते है उसकी भी बात हो जाए? मुझे तो जमीन पर बैठ के खाना कुर्सी टेबुल से बेहतर लगता है, पर शहरों में आज मांग मांग कर खाने वाला चलन अब जोरों पर है और शायद गाँव में भी यह संक्रमण जल्द फैले पर जी अबतक हम इससे अछूते है. गाँव में सेल्फसर्विस जैसी नंगई अभी नही आयी है, और आज भी गाँव के ही लोगों द्वारा बड़े प्रेम से लोगों को स्वादिष्ट भोजन परोसा जाता हाही.. अच्छा मांग, मांग कर खाने वाली बात से याद आया की पहले जब भोज में जाता था और बगल में कोई धुरंधर बैठे होते थे, जिनको खुद के लिए कुछ लेना होता था तो वो बारीक(जो लोग भोजन परोसते है) को यह कह कर बुलाते थे की ये बच्चा कुछ लेगा, और जब बच्चा मना कर दे तो बड़ी चालाकी से कहते थे की अच्छा ये नही लेगा तो थोडा इधर ही डाल दो  ऐसाु क्या आपके साथ हुआ था कभी?
खैर गाँव में जमीन पर बैठ कर, अपने परोस के लोगों के साथ, एक बार में दो सौ लोगों के साथ भोजन करना बहुत बेहतरीन लगता था, भोजन जब अपनों के साथ हो, अपनों द्वारा परोसा जाये तो स्वाद तो आएगा ही…वैसे पलथी मार के दही सुरुकने वाले कुछ लोगों को अगर आप खाते देख ले तो हो सकता है आपका मुड खराब हो जाए, पर हम औरों को काहे देखेंगे अपना दही सुरुकेंगे की नही? क्यूँ..
और हाँ भोज के बाद भोज का पोस्टमार्टम भी होता है, और भोज था कैसा उसके लिए एक ही पैमाना है..की दही कैसा था..अगर दही मीठा, तजा था, तो भोज सफल वरना लोग भूल जाते है और अगले अंगेया का इन्तजार करते है…

आपका नही पता पर मुझे तो अपने गाँव का भोज बेहतरीन लगता है, और छुट्टियों में भोज मिल जाए तो गंगा नहाने वाली फीलिंग मिल जाती है..
अब विजय होगा?

गाँव के वेबसाईट  और गाँव  में आप आमंत्रित  है 🙂
आपका सन्नी
http://www.kharauna.com/?p=687

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