गरीबी, जनसंख्या और दोषारोपण

भूलन पहले रिक्शा चलाता था पर जब से टीबी हुआ है रिक्शा छूट गया है, खेत में भी काम नहीं कर पाता बस थोडा बहुत टहल-टिकोला किसी का कर देना उसका काम है और उसकी बीबी खेतिहर मजदूर है, गाँव के ही एक सम्पन्न किसान के यहां दिन रात एक किये रहती है और उसी के मेहनत से घर चलता है।
भूलन के मात्र 5 बच्चे है (मात्र 5 इसलिए क्योंकि भूलन के भाइयों के 8-8, 10-10 बच्चे है), तीन बेटियां और दो बेटे। दोनों बड़ी बेटियां, जिनकी उम्र 14-15 की रही होगी तभी ब्याह दिया था, सच तो ये भी है की जो दूसरी बेटी थी उसको राज्य से बाहर बियाहा था और लड़का भले उम्र में उससे बहुत बड़ा था, बोले तो 35-40 का, पर था खूबे अमीर। भूलन की बिबी जब भी खेत में आती थी तो अपने उस बेटी की ठाठ जरूर सुनाती थी। भूलन का बड़ा लड़का जो यही कोई 11-12 साल का रहा होगा किसी के यहां नौकरी में है और गाँव कम ही आता है। कुल मिलाकर बिमार भूलन उसकी कर्मठ बीबी और दो बच्चे जो अभी 5-7 साल के होंगे, साथ रहते है।

बाकियों की तरह भूलन को भी इंदिरा आवास मिल चूका है पर महंगाई के जमाने मे सिर्फ  सरकारी पैसे से तो घर बनने से रहा, ऊपर से जितना सरकार देती है उसका चौथाई भर तो लोगों के चाय पानी में ही बह जाता है। एक कमरे का वह घर जिसके दीवार, ईंट के और छत फूस का है और भले यह घर पूरा न हुआ है पर ‘हर घर शौचालय’ वाले कार्यक्रम के तहत घर के सामने ही मुखिया ने एक सौंचालय का ओपन शीट जरूर बैठा दिया है जो फिलहाल पूरे बस्ती के गटर के लिए सोख्ता बना हुआ है।

खैर इस बार जब चुनाव हुए थे तो भूलन भाषन सुनने खूब जाता था और जहाँ मौका मिलता, अपनी गरीबी जरूर रोता था और अपनी बदहाली के लिए कभी अपने भाइयों को तो कभी गाँव के सम्पन्न लोगों को कोसता था। उसने भले दसियों चुनाव देख लिए थे पर न जाने क्यों राजनेताओं से उसको अभी भी उम्मीदें है। उसे लालू की हर बात सुहाती है और उसको भी लगता है की उसका हक़ बाबुओं ने मार लिया, चुनाव के दौरान उसकी बीबी को भी लगा था की चुनाव बाद दिन बदलेंगे और उसे बाबुओं के खेत में काम न करना परेगा पर भारतीय राजनेताओं ने आज तक कुछ बदल है जी अब कुछ बदलता।

कल जब खेत में पानी पटवन के टाइम भूलन की बीबी आई तो मैंने पूछ लिया कि उसके चुुनेे सरकार सेे उसे कुछ मिला की नहीं तो कहने लगी कि सरकार की योजनाएं गरीबों तक पहुँचती ही कब है? सरकार तो उसी को देबे है जिसका घर पहले से भरा हो, भले वो जात वाले हमारे हो पर खुशामदी तो बाबू लोग की ही करते है। मेरे मन में था की पूछ लूँ की इंदिरा आवास से घर तो मिला न, 3 रूपये चावल तो मिलता है न, सस्ता किराशन भी और भी कई तरह केे छूूत हो क्या चाहती हो कि बच्चे तुम पैदा करो और पोस सरकार दे? पर अब चुकी वो थोडा निराश थी हम बोले की अरे नहीं अब तो नितीश के संगे लालू आ गए है अब तो पकिया पिछड़ों के दिन बदलेंगे पर हाँ मांझी की बात मानो ये जो दलितों की संख्या 16% है, इसको कम से कम 21% करो कहने का मतलब तुम सब दलित लोग (संविधान केे अनुसार) दो दो बच्चे और पैदा करो और अपने राजनेताओं का वोट बैंक बढाओ। क्या हो जाएगा अगर दो बेटियां और कम उम्र में ब्याहनी परे या दो बेटे और बाल मजदूरी पे लगाने परे? वो तंज समझ गयी बोली नेताओं का क्या है, वो तो 10-12 बच्चे भी पोस लेते है, नेता की अनपढ़ बीबी-बेटा भी मंत्री बनते पर हम गरीबों का क्या हम तो बस वोट गिराने के दिन ही पूछे, पूजे जाते है। हमलोग तो जिनगी भर मजदूर ही रह जायेंगे और एक छत भी न होगा..

अब वो चिंतित थी और थोडा अपन भी होने लगे चुकि छत तो अब अपनी भी कमजोर हो रही थी, पुराने घर की दीवारों में दरार भी आ गयी है… खैर अभी पानी पटाते है बहुत से मूंसे खेत में कोहराम मचाये हुए है पहले उनसे तो निपट ले…..

बुझे की नहीं? अगर बुझ गए तो आप भी अपनी बात लिख दीजिये….
आपका सन्नी कुमार

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