क़ुरबानी….क़ुरबानी…क़ुरबानी…अल्लाह को प्यारी है क़ुरबानी..
पर किसकी क़ुरबानी? और किसे कहे सही मायनों में क़ुरबानी…?
मित्रो से सुना है की अल्लाह के भेजे किसी पैगम्बर ने इस रोज अल्लाह में यकीन रखते हुए अपने् सबसे प्यारे, अपने बेटे्े की क़ुरबानी दी थी, अब चुकि अल्लाह का दिल बड़ा दयालु था तो बच्चा बच गया, अल्लाह पैगम्बर की भक्ति विस्वास से प्रसन्न हो उसकी जगह कोई अरबी भेड को कुर्बान कर दिए… और तभी से उस रोज बाकी जानवरों के लिए एक आफत वाला दिन मुक़र्रर हुआ, जिसे हम ईद कहकर मना रहे है..
आज लोग अपने बेटों पर दाव नही लगाते, स्पस्ट है सबको पता है की कोई न आवेगा बचाने, सो आज जुगाड़ के इस दौड़ में लोग बकड़े को ही बेटे सरीखा पालते है, पोसते है, और फिर उसे काट के खा जाते है..और हो जाती है कुर्बानी. शायद अल्लाह खुश भी होते हो पर हम न होते है सच्ची….इस तरह, आज के लोग अपने अल्लाह को यकीन दिलाते है की वो भी अपने प्यारे का क़ुरबानी अल्लाह को दे सकते है. वैसे मुझे तो ये किसी का फिरकी लेना लगता है पर इस पर जब तक मेरे नंगे-पुंगे दोस्त PK फेम आमिर खान की रजामंदी न आ जाये, इस फिरकी वाली बात को आप साइड कर ले…
बहरहाल ईद की ख़ुशी में स्वरचित ये चंद पंक्तिया बाँट रहा हु, अगर समझ आये तो शेयर जरुर करें….
कैसे कह दूँ रमदान मुबारक??
जानता हूँ फितरत अब जब,
की कैसे निर्दोषों की बलि चढ़ाते हो,
अमन का सन्देश भूले हो जब,
नित रोज इंसानियत का खून कर आते हो,
कैसे कह दूँ रमजान मुबारक,
की तुम हिंदुस्तानी होकर भी वन्देमातरम से कतराते हो।
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मन होता है तुम्हें कभी आदाब कहूँ,
और मुख से तुम्हारे भी जय श्री राम सुनूं,
तुम कहते हो ऐसा करते ही तुम काफ़िर हो जाओगे,
तो मैं आदाब कहके म्लेच्छ न हो जाऊंगा?
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तुम भोग विलासिता के पश्चिम हो,
हम योग द्वीप के पूरब है,
तुम रोजा, चाँद के दीवाने हो,
हम सूरज को पूजने वाले है।
तुम्हे इस मिटटी में दफन है होना,
हम अग्नि में जल जाने है,
है पन्थ अलग, हर चाह अलग,
दोनों का विस्तार अलग।
तुम हो एकलौते अल्लाह के उपासक,
हम हर तत्व पूजने वाले है,
सो तुम देते हो संज्ञा काफ़िर की,
हम भी अब म्लेच्छ कहने से नहीं कतराते है।
है जान फूंका दोनों के अंदर,
और रक्त का रंग भी एक सा है,
दोनों को है दो दो नयन,
पर सब समान देखना भूल जाते है…
तुम खुद को अरबी से जोड़ते,
और मैं गर्वी हिंदुस्तानी हूँ,
तुम क़ुरआन को लानेवाले,
मैं गीता का शाक्षी हूँ।
तुम को यकीन अरबी मुहम्मद पे,
मैं सेवक सनातनी राम का हूँ,
तुमको मिला अमन का सन्देश,
और मुझे न्याय, धर्म की रक्षा का,
है सन्देशो में समानता फिर,
क्यों हम और तूम अब उलझे है?
अमन फैलाओ अहिंसा से तुम,
न काफ़िर कह कर रक्तपात करो,
मैं ईद मिलूं गले लग तुमसे,
तुम इदि में वन्देगान् करो।
है दोनों हम हिन्द धरा पर,
की इसका मिलके जयघोष करें।
दुनिया समझे मजहब के मतलब,
ऐसे उदाहरण हम प्रस्तुत करें।
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