कलम के सौदागरों ने तब क्या क्या नही था बेचा,
शब्द बेचे, स्याही बेचीं, कागज़ तक था बेचा,
नजरानों के नशे में चूर लोभियों ने,
देश का इतिहास तक था बेचा…
खैर कुछ कलम वाले तब भीे, कागज को खून से रंगते थे,
कुछ आज भी है वतनपरस्ते जो बीके शब्दों को वापिस से बुनते है.
उम्मीदें है और हम साथ भी की चलिए एक नया भविष्य गढ़ते है…. 🙂
मर्मर्स्पशी
bahut khoob… dil chune wali baat hai
धन्यवाद 🙂
बहुत अच्छा . . . . .
आपका आभार 🙂