वो शुप्त नहीं है,
न ही रौशनी विहीन,
पर दिखे उन आँखों को कैसे,
जिनपे हो पट्टियाँ लगी?
है वो ओज़ गुण संपन्न,
सनातन धर्म से जुड़ा,
उसमें शंखनाद की हिम्मत,
विकास-पुरुष वो हुआ..
उसमें तेज है जान,
बहुतों ने दिए जलवाए,
कुछ ने आग भी लगवाएं,
किया क्या कोई उसने जुर्म,
जो उसने तेज धर्म निभाएं?
जिस रस्ते हो तेल छिड़का,
वहीँ से आग भी गुजरे,
फिर वहां जले न कोई,
क्या ऐसा हुआ है कभी?
क्यूँ आरोप बस उस आग पे,
की उसने घर थे जलाये,
क्यूँ नहीं उनका कुछ,
जिन्होंने तेल थे फैलाए?
नहीं करता कोई विवाद,
ना कोई पूर्व से प्रश्न,
मैं मानता ये सच हूँ,
कि उसने मान है बढायें|
वो शुप्त नहीं है,
न ही रौशनी विहीन,
पर दिखे उन आँखों को कैसे,
जिनको आँखें ही नहीं?
-सन्नी कुमार
[एक निवेदन- आपको हमारी रचना कैसी लगी कमेंट करके हमें सूचित करें. धन्यवाद।]
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